"अबला जावन हाय तुम्हारी यही कहानी; आचल में है दूध और आंखों में पानी।" वास्तव में शुरू से लेकर आज तक नारी-जीवन की यही ट्रेजेडी है। सतयुग में तनिक से संदेह पर अहल्या को पत्थर बना दिया गया, त्रेता में गर्भवती सीता को वनवास दिया गया, द्वापर में द्रोपदी को हाथ का मैल कही जाने वाली निर्जीव मुद्रा की तरह जुए में दाव पर लगाया गया तथा भरी सभा उसका चीर हरण किया गया और कलियुग का तो कहना ही क्या? आज नारी बलात्कार, क्रय-विक्रय, वेश्यावृत्ति, दहेज, अग्निदाह, पुरूष के क्रुरतम व्यवहार इत्यादि का शिकार बन रही है। इस पुरूष-प्रधान समाज में वह बहुत जुल्मों को झेल रही है। पुरूष के सौ खून माफ हैं परन्तु एक छोटे से सन्देह पर उसका जीवन नरक बनाकर रख दिया जाता है। ऐसी भीषण दुर्दशा से उबरने के लिए नारी को स्वयं जाग्रत होना पड़ेगा। उसे अपने बल पर समाज की गलत दिशा को बदलना होगा। नारी-देह की दौलत का केवल वासनामयी उपभोग एवं उसका शोषण करने वाले पुरूष को एक पाठ बढ़ाना होगा। फिल्म "उद्धार" इसी सोच का विशलेषण, दिग्दर्शन और उद्देश्यपूर्ण प्रदर्शन करती है। इसमें एक समाधान है और एक सुझाव भी।
पढ़ा-लिखा नवयुवक नरेश अपने पिता समान बड़े भाई की अभिलाषाओं को ठुकरा कर एक फूल चुनने और शहद एकत्र करने वाली पर्वतीय बाला बिजली को अपनी जीवन-संगिनी बनाने का निश्चय करता है। बिजली इसके लिए किन्हीं कारणों से अपने आप को अयोग्य बताती है और गंगा के समान पवित्र अपनी छोटी बहन से विवाह कर लेने का प्रस्ताव करती है जिसके पालन-पोषण का भार उसकी माँ मरते समय बिजली पर छोड़ गई थी। नायक नरेश इसे स्वीकार नहीं करता होता है- 'प्यार किसी से और शादी किसी से; यह नहीं हो सकता।' वह अपने प्रेम की दुहाई देकर बिजली को राजी कर लेता है। किन्तु कभी किसी कामी-क्रूर नर-पिशाच का शिकार बनी तेज-तर्राख बिजली अपने प्रेमी से कुछ छिपाना पसन्द नहीं करती। वह कुछ कहना चाहती है। इससे पूर्व कि वह कुछ कहे नरेश कहने लगता है- 'जवानी में हर शख्स के साथ कोई न कोई हादसा होता ही है'-और वह अपनी की हुई बेवकूफियों को सुनाते हुए कहता है कि वह किस प्रकार एक नत्र्तकी पर दिलोजान से मुस्ताक था। बिजली मस्ती के साथ सब कुछ सन जाती है। फिर वह अपने साथ हुए हादसे को साफ-साफ बता देती है वह यह भी बता देती है कि उसने उस नर-पिशाच को खून कर दिया पर यह कानून से छूट चुकी है। नरेश जो कुछ देर पहले बड़ी डीगें मार रहा था; इस 'कड़वी दवा' को गले से नीचे नहीं उतार पाता! वह विचार करने के लिए कुछ वक्त की मोहलत मांगता है। आगे इस उलझन का क्या सुलझाव है, कालेज लाईफ में मिली एक नर्तकी जिस पर नरेश जान देता था किन्तु वह उसे सच्चा स्नेह भर करती थी-क्या अदभत रोल अदा करती है, नरेश किस प्रकार सही रास्ते पर आता है, नायिका बिजली क्या कुछ नहीं सहन करती, विषम परिस्थितियों से उसका उद्धार किस प्रकार होता है इत्यादि बातों का आशा-निराशा, हर्ष-विषाद, रहस्य-रोमांच, संघर्ष-सहयोग, आंसू और हँसी के विभिन्न रंगों से परिपूर्ण अन्त देखिए रूपहले, पर्दे पर "उद्धार" में।
(From the official press booklet)